पिछले दिनों मै मुक्तिबोध की कविताएं पढ़ रहा था और संयोग देखिये वही कविता कुछ अलग अंदाज़ में कुछ मित्रों ने गाया है और आज मेरे पास मौजूद है,अपनी संवेदना भी अब कुछ ऐसे हो गई है, कि बहुत सी बातों का असर हम पर होता ही नहीं,अपने आस पास ही कुछ ऐसे स्थितियाँ बन जाती हैं कि लगने लगता है कि कुछ बोलुंगा तो खामख्वाह अपना समय ज़ाया होगा, और चुपचाप निकल लेने में ही अच्छाई नज़र आने लगी है,कैसे हो गये हैं हम? पहले तो ऐसे नहीं थे.पिछले दिनों आतंकी घटना हुई यहां मुम्बई में,पूरे दिन टेलीविज़न पर आंख गड़ाए सारे ऑपरेशन को देखता रहा,मन ही मन दुखी होता रहा,सरकार को कोसता रहा,गुप्तचर विभाग को कोसता रहा,और इसके विरोध में प्रोटेस्ट गेदरिंग होनी थी गेटवे ऑफ़ इंडिया पर, तो मन में संशय था मैं अगर वहां चला भी गया तो मेरे जाने से क्या हो जाएगा?
इस गाने की वजह से मुझे मजबूरन जाना पड़ गया,मैं उस भीड़ में शामिल हुआ,बेइंतिहां लोगों से पटा पड़ा था शहर उस दिन,इतने सारे लोग जमा थे वहां, जिसमें हर वर्ग के लोगों की शिरक़त भी थी, पर उनका कोई नेता नहीं था, अगर कोई बनने की कोशिश करता भी तो लोग उसे वहा से भगा भी देते, उस दिन भीड़ में उन लोगों के चेहरे देख कर लगा था कि कितने तो लोग हैं जो समाज में सकारात्मक परिवर्तन चाहते है, पर सब भीड़ ही बने रहना चाहते हैं,कोई नेता नहीं बनना चाहता,उस दिन के बाद अभी तक मैं यही सोच रहा हूँ आखिर वहां जाकर क्या मिला,उससे बेहतर तो ये गीत है जिसे आप सुनेंगे,और अपने ऊपर जो प्रश्न चिन्ह लगे हैं उसकी कम से कम निशानदेही तो कर पायेंगे, तो सुने.हांलाकि जिसे आप गीत के रुप में सुनने जा रहे है है वो दर असल है मुक्तिबोध की लम्बी कविता "अंधेरे में", यहां पर इस कविता की कुछ पंक्तियाँ ही गाई गई हैं।
ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया!!
उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में क़नात-से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,
दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना,
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया!! मुक्तिबोध मुक्तिबोध पर चटका लगा कर, इस रचना को सुन सकते हैं ! !हिरावल, पटना की प्रस्तुति आवाज समता राय, डीपी सोनी, अंकुर राय, सुमन कुमार और संतोष झा की है।
इस गाने की वजह से मुझे मजबूरन जाना पड़ गया,मैं उस भीड़ में शामिल हुआ,बेइंतिहां लोगों से पटा पड़ा था शहर उस दिन,इतने सारे लोग जमा थे वहां, जिसमें हर वर्ग के लोगों की शिरक़त भी थी, पर उनका कोई नेता नहीं था, अगर कोई बनने की कोशिश करता भी तो लोग उसे वहा से भगा भी देते, उस दिन भीड़ में उन लोगों के चेहरे देख कर लगा था कि कितने तो लोग हैं जो समाज में सकारात्मक परिवर्तन चाहते है, पर सब भीड़ ही बने रहना चाहते हैं,कोई नेता नहीं बनना चाहता,उस दिन के बाद अभी तक मैं यही सोच रहा हूँ आखिर वहां जाकर क्या मिला,उससे बेहतर तो ये गीत है जिसे आप सुनेंगे,और अपने ऊपर जो प्रश्न चिन्ह लगे हैं उसकी कम से कम निशानदेही तो कर पायेंगे, तो सुने.हांलाकि जिसे आप गीत के रुप में सुनने जा रहे है है वो दर असल है मुक्तिबोध की लम्बी कविता "अंधेरे में", यहां पर इस कविता की कुछ पंक्तियाँ ही गाई गई हैं।
ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया!!
उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में क़नात-से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,
दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना,
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया!! मुक्तिबोध मुक्तिबोध पर चटका लगा कर, इस रचना को सुन सकते हैं ! !हिरावल, पटना की प्रस्तुति आवाज समता राय, डीपी सोनी, अंकुर राय, सुमन कुमार और संतोष झा की है।