बसंत ॠतु पर रचनाएं तो बहुत हैं पर
आज की ताज़ा, नई युवा और दमदार आवाज़ को ढूंढना
भी वाकई एक दुरूह कार्य है, पुरानी रेकार्डिंग में तो कुछ रचनाएं मिल तो जायेंगी, भाई यूनुस जी के रेडियोवाणी पर बहुत पहले वारसी बधुओं की आवाज़ में इस रचना को सुना था और पिछले साल मैने इस रचना को सारा रज़ा ख़ान की आवाज़ में सुना था तब से इसी मौके की तलाश थी,
पड़ोसी देश पाकिस्तान की सारा रज़ा ख़ान की मोहक
आवाज़ में अमीर ख़ुसरो की इस रचना का आप भी लुत्फ़ लें |
फूल रही सरसों, सकल बन (सघन बन) फूल रही....
फूल रही सरसों, सकल बन (सघन बन) फूल रही....
अम्बवा फूटे, टेसू फूले, कोयल बोले डार डार,
और गोरी करत सिंगार,मलिनियां गढवा ले आईं करसों,
सकल बन फूल रही...
और गोरी करत सिंगार,मलिनियां गढवा ले आईं करसों,
सकल बन फूल रही...
तरह तरह के फूल लगाए, ले
गढवा हातन में आए ।
निजामुदीन के दरवाजे पर, आवन कह गए आशिक रंग,
और बीत गए बरसों ।
सकल बन फूल रही सरसों ।
निजामुदीन के दरवाजे पर, आवन कह गए आशिक रंग,
और बीत गए बरसों ।
सकल बन फूल रही सरसों ।